Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी हँसकर जवाब देती है, “तुम्हारा क्या नुकसान हुआ? नहीं सोने पर भी तो ये तुम्हारी पाठशाला के बछड़ों को चराने नहीं जायेंगे!”


“देखता हूँ कि दीदी इन्हें मिट्टी कर देंगी।”

“नहीं तो खुद जो मिट्टी हुई जाती हूँ, बेफिक्री से कोई काम-काज ही नहीं कर पाती।”

“आप दोनों ही क्रमश: पागल हो जायेंगे।” कहकर आनन्द बाहर चला जाता है।

स्कूल बनवाने के काम में आनन्द को साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है, और सम्पत्ति खरीदने के हंगामे में राजलक्ष्मी भी पूरी तरह डूबी हुई है। इसी समय कलकत्ते के मकान से घूमती हुई, बहुत से पोस्ट-ऑफिसों में की मुहरों को पीठ पर लिये हुए, बहुत देर में, नवीन की सांघातिक चिट्ठी आ पहुँची- गौहर मृत्युशय्या पर है। सिर्फ मेरी ही राह देखता हुआ अब भी जी रहा है। यह खबर मुझे शूल जैसी चुभी। यह नहीं जानता कि बहिन के मकान से वह कब लौटा। वह इतना ज्यादा पीड़ित है, यह भी नहीं सुना-सुनने की विशेष चेष्टा भी नहीं की और आज एकदम शेष संवाद आ गया। प्राय: छह दिन पहले की चिट्ठी है, इसलिए अब वह जिन्दा है या नहीं-यही कौन जानता है! तार द्वारा खबर पाने की व्यवस्था इस देश में नहीं है और उस देश में भी नहीं। इसलिए इसकी चिन्ता वृथा है। चिट्ठी पढ़कर राजलक्ष्मी ने सिर पर हाथ रखकर पूछा, “तुम्हें क्या जाना पड़ेगा?”

“हाँ।”

“तो चलो, मैं भी साथ चलूँ।”

“यह कहीं हो सकता है? इस आफत के समय तुम कहाँ जाओगी?”

यह उसने खुद ही समझ लिया कि प्रस्ताव असंगत है, मुरारीपुर के अखाड़े की बात भी फिर वह जबान पर न ला सकी। बोली, “रतन को कल से बुखार है, साथ में कौन जायेगा? आनन्द से कहूँ?”

“नहीं, वह मेरे बिस्तर उठाने वाला आदमी नहीं है!”

“तो फिर साथ में किसन जाय?”

“भले जाय, पर जरूरत नहीं है।”

“जाकर रोज चिट्ठी दोगे, बोलो?”

“समय मिला तो दूँगा।”

“नहीं, यह नहीं सुनूँगी। एक दिन चिट्ठी न मिलने पर मैं खुद आ जाऊँगी चाहे तुम कितने ही नाराज क्यों न हो।” '

अगत्या राजी होना पड़ा, और हर रोज संवाद देने की प्रतिज्ञा करके उसी दिन चल पड़ा। देखा कि दुश्चिन्ता से राजलक्ष्मी का मुँह पीला पड़ गया है, उसने ऑंखें पोंछकर अन्तिम बार सावधान करते हुए कहा, “वादा करो कि शरीर की अवहेलना नहीं करोगे?”

“नहीं, नहीं, करूँगा।”

“कहो कि लौटने में एक दिन की भी देरी नहीं करोगे?”

“नहीं, सो भी नहीं करूँगा!”

अन्त में बैलगाड़ी रेलवे स्टेशन की तरफ चल दी।

आषाढ़ का महीना था। तीसरे प्रहर गौहर के मकान के सदर दरवाजे पर जा पहुँचा। मेरी आवाज सुनकर नवीन बाहर आया और पछाड़ खाकर पैरों के पास गिर पड़ा। जो डर था वही हुआ। उस दीर्घकाय बलिष्ठ पुरुष के प्रबलकण्ठ के उस छाती फाड़ने वाले क्रन्दन में शोक की एक नयी मूर्ति देखी। वह जितनी गम्भीर थी, उतनी ही बड़ी और उतनी ही सत्य। गौहर की माँ नहीं, बहिन नहीं, कन्या नहीं, पत्नी नहीं। उस दिन इस संगीहीन मनुष्य को अश्रुओं की माला पहनाकर विदा करनेवाला कोई न था; तो भी ऐसा मालूम होता है कि उसे सज्जाहीन, भूषणहीन, कंगाल वेश में नहीं जाना पड़ा, उसकी लोकान्तर-यात्रा के पथ के लिए शेष पाथेय अकेले नवीन ने ही दोनों हाथ भरकर उड़ेल दिया है।

बहुत देर बाद जब वह उठकर बैठ गया तब पूछा, “गौहर कब मरा नवीन?”

“परसों। कल सुबह ही हमने उन्हें दफनाया है।”

“कहाँ दफनाया?”

“नदी के किनारे, आम के बगीचे में। और यह उन्हीं ने कहा था। ममेरी बहिन के मकान से बुखार लेकर लौटे और वह बुखार फिर नहीं गया था।”

“इलाज हुआ था?”

“यहाँ जो कुछ हो सकता है सब हुआ, पर किसी से भी कुछ लाभ न हुआ। बाबू खुद ही सब जान गये थे।”

“अखाड़े के बड़े गुसाईंजी आते थे?”

नवीन ने कहा, “कभी-कभी। नवद्वीप से उनके गुरुदेव आये हैं, इसीलिए रोज आने का वक्त नहीं मिलता था।” और एक व्यक्ति के बारे में पूछते हुए शर्म आने लगी, तो भी संकोच दूर कर प्रश्न किया, “वहाँ से और कोई नहीं आया नवीन?”

नवीन ने कहा, “हाँ, कमललता आई थी।”,

“कब आई थी?”

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